Monday, March 4, 2013

छाँव
















वसू हूँ मैं
मेरे ही अन्दर
से तो फूटे हैं
श्रृष्टि के अंकुर 
आँचल की 
ममता दे सींचा 
अपने आप में
जकड़ कर रक्खा 
ताकि वक्त 
की तेज आंधियाँ
उन्हें अपने साथ 
उड़ा ना ले जाएं
बढ़ते हुए 
निहारती रही 
पल-पल 
अब वो नन्हें 
से अंकुर 
विशाल वृक्ष 
बन चुके हैं 
और मैं बैठी हूँ 
उस वृक्ष की 
शीतल छाँव में 
आनन्दित 
मगन
अपने आप में ||

4 comments:

  1. kyaa baat hai mai samajh saktaa hoon ek aurat kaa maa banana fir bachhon ko paal pos ke badaa karnaa aur fir unhe chahchate hue dkhnaa = khoob kahaa - badhaaee

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  2. बहुत बहुत शुक्रिया आप का मुकेश जी

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  3. विशाल वृक्ष
    बन चुके हैं
    और मैं बैठी हूँ
    उस वृक्ष की
    शीतल छाँव में
    आनन्दित
    मगन
    अपने आप में....................क्या बात !!!

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  4. शुक्रिया अरुणा जी

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